इतिहास क्या है? राजनीति, टेलीविजन और सोशल मीडिया तीनों ने मिलकर इस सवाल को केवल राजवंशों के उत्थान और पतन की कहानी तक ही सीमित कर दिया है। एक सामान्य दृष्टा, जिससे मेरा अभिप्राय उन सभी व्यक्तियों से है, जो इतिहास के विशेषज्ञ या छात्र न होकर किसी भी अन्य विषय के छात्र और विशेषज्ञ होने से है, चाहे वह नासा और इसरो के वैज्ञानिक हों या फिर गूगल, मेटा फेसबुक, व्हाट्सएप के कर्मचारियों से लेकर, आई. आई. टी. और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों हों। वो इतिहास को इस रूप में देखते है, जैसा कि टीवी और सोशल मिडिया उन्हें दिखता है। आज के भारत में इतिहास का एक विषय के रूप में इतना ही महत्त्व है कि सिविल सर्विसेस की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए सबसे अच्छे विकल्प के रूप में इतिहास उपलब्ध है। यहाँ तक की विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में इतिहास में बी.ए. और एम.ए. की डिग्री भी वही छात्र और छात्राएं करते हे जो सिविल सर्विसेज की तैयारी में लगे हुए हो। इतिहास को एक पेशेवर विषय के रूप चुन कर पढ़ाई करने वाले छात्रों की गिनती न के ही बराबर है। यद्यपि जो छात्र और छात्राएं, बी.ए. एम.ए और पी.एच.डी. करने आ जाते है उनमें से अधिकतर ऐसे छात्र होते है जिनको बस डिग्री ही करनी है, चाहे वो किसी भी विषय में हो। लेकिन इसके बावजूद वर्तमान भारत में सभी लोग अपने आप को इतिहास का विशेषज्ञ समझते है; फिर चाहे वो किसी भी जिले के सरकारी कार्यालय के कर्मचारी हो, समाचार एजेंसी का ऑफिस हो, या फिर खस्ताहाल जिला अस्पताल के कर्मचारी, सड़क के किनारे रेडी पटरी लगाने वाले हों, ये सभी लोग अपना पहला कर्त्तव्य अपने पेशे या नौकरी को नहीं बल्कि अपने अधकचरे इतिहास के ज्ञान को दूसरे लोगो तक पहुंचना हीं समझते है। यह एक विचित्र जिम्मेदारी है जिसे भारत के साथ-साथ दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति बहुत अच्छे से निभा रहे हैं। और यही एक सामान्य द्रष्टा होने की सबसे बड़ी समस्या है चाहे वो किसी भी देश में हो उसे यही लगता है कि सरकार उससे उसके पूर्वजों का सच्चा इतिहास छिपा रही है और जिसका जिम्मेदार वो इतिहासकारों को समझता है।
इतिहास जिसे आज एक आम आदमी, किसी एक धर्म, जाति, नस्ल और वर्ग विशेष द्वारा किसी दूसरे धर्म, जाति और नस्ल पर अत्याचार की कहानी के रूप में ही याद करते है और वर्तमान में उसी जाति और धर्म के लोगो से अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचार का बदला लेने की भावना रखते है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आज हम इसरो में काम कर रहे या फिर एम्स या आई.आई.टी. जैसे किसी उच्च शिक्षा संस्थान में या फिर भारत सरकार के किसी मंत्रालय के उच्च पद पर विराजमान है। दूसरे शब्दों में कहे तो चाहे हमने कितनी भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर ली हो या कितने भी ऊंचे पद पर नियुक्त हो, हमारे लिए इतिहास का एक मात्र उद्देश्य अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचारों का बदला लेना ही बचा है ।
सबसे पहले हमें यह समझना पड़ेगा की इतिहास केवल राजवंशों का लेखा-जोखा नहीं अपितु किसी भी देश काल में घटने वाली प्रत्येक घटना चाहे वह भौतिकी से संबंधित हो या रसायन विज्ञान, मेडिकल, या फिर सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में होने वाली घटनाए हो, यह सभी इतिहास का अभिन्न अंग होती हैं। जिसका एकमात्र उद्देश्य उन घटनाओं का मूल्यांकन करते हुए उनमें सुधार करना है ताकि पिछली बार की गयी गलती से बचा जा सके।
साधारण भाषा में कहा जाये तो इतिहास का उद्देश्य, भूतकाल में घटी घटनाओं का मूल्यांकन करना और यह ध्यान रखना कि पहले दोहराई गयी गलतियों से सबक लेकर वर्तमान और भविष्य का निर्माण करना है। यहां पर भूतकाल का अर्थ हजारो वर्ष पूर्व घटी घटना से ही नहीं बल्कि प्रतिदिन घटने वाली घटनाओं से भी होता है। हमारा हर बीता हुआ पल हमारा इतिहास है, और बीते हुए प्रत्येक पल में किये गए सफल और असफल प्रयास हमारे आनेवाले पल के लिए सबक होते हैं, यही इतिहास का उद्देश्य होता है। कोई सामान्य व्यक्ति हो या फिर बड़े से बड़ा कोई भी उद्योगपति किसी भी कारोबार या पेशा को करते हुए इतिहास के इस सबक को हमेशा सबसे अधिक याद रखता है।
विज्ञान से जुड़े किसी भी विषय के लिए इतिहास का यह सबक सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है, अगर उदाहरण के लिए हम भारत के मिशन चंद्रयान की बात करे जिसे हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सफलतापूर्वक सम्पन्न कर अंतरिक्ष के इतिहास में भारत का नाम अंकित कर दिया। चंद्रयान -3 से पहले इसरो ने चांद पर चंद्रयान-2 को भेजने की कोशिश की थी लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई, इसके बाद इसरो ने चंद्रयान-2 की गलतियों से सीख ले कर चंद्रयान -3 का सफलता पूर्वक प्रक्षेपण किया और चन्द्रमा की सतह पर लेंडिग करवाई। हमारे पास केवल यही एक उदहारण नहीं है बल्कि दुनिया का कोई भी वैज्ञानिक अविष्कार, चाहे वो पहला हवाई जहाज हो, या कार हो, या फिर जान लेवा बीमारियों से हमरी रक्षा करने वाली वैक्सीन, ये सभी चंद्रयान -3 की तरह बहुत सारे असफल प्रयासों और लगातार उनमें किये गए सुधारो के बाद बनाये गए। किसी भी वैज्ञानिक के लिए एक सफल अविष्कार के साथ साथ हजारो असफल प्रयास भी अति महत्वपूर्ण होते है, जिनसे सबक लेकर वर्तमान और भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त होता है।
किन्तु जब हम बात राजनैतिक इतिहास की करें तो चाहे वह वैज्ञानिक हो या सामान्य व्यक्ति हो वह इतिहास से केवल दुसरो से धार्मिक और जातिय घृणा करना ही सीखता है। ख़ासकर भारत जैसे देश में जिसकी भौगोलिक और सांस्कृतिक विभिन्नता के कारण हर क्षेत्र और राज्य का अपनी अलग संस्कृति, खान-पान और पहनावा है। अगर हम भारत के इतिहास को उठाकर देखे तो पता चलता है कि एक दो अपवादों को छोड़कर प्राचीन भारत का कोई भी राजवंश पूरे भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हो सका। प्राचीन काल से लेकर आजादी के पूर्व तक उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम एक ही समय में भारत में कई स्वतंत्र साम्राज्य रहे हैं जो आपस में संघर्ष करते रहे हैं।
प्राचीन भारत के सम्पूर्ण इतिहास का उल्लेख इस लेख में करना बहुत कठिन है, मैं केवल कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूँ, जिनका असर भारत पर बहुत लम्बे समय तक रहा और उन्होंने आने वाले इतिहास को भी बहुत हद तक प्रभावित किया।
प्राचीन भारतीय इतिहास और राजनीति को प्रभावित करने वाली सबसे पहली घटना ईरान के राजा डेरियस प्रथम का उत्तर पश्चिम भारत पर आक्रमण था। जिसने 516 ई.पू. में सर्वप्रथम गांधार को जीतकर फारसी साम्राज्य का हिस्सा बना लिया था। प्राचीन भारत का पश्चिमोत्तर भाग डेरियस प्रथम के साम्राज्य का 20 वां प्रांत (हेरोडोटस के अनुसार) था। कंबोज एवं गांधार पर भी उसका अधिकार था। 516 ई.पू. के आसपास उत्तर भारत 16 महाजनपदों और कुछ छोटे जनपदों में बटा हुआ था जो आपस में संघर्षरत थे इसी अराजकता और राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठा कर डेरियस ने उत्तर पश्चिम भारत के कुछ हिस्से को अपने राज्य में मिला लिया। 516 ई.पू.से लेकर 326 ई.पू. तक लगभग 200 वर्षो बाद तक मगध साम्राज्य के उदय के आलावा भारत में कोई बहुत बड़ा राजनैतिक बदलाव नहीं आया, पश्चिमोत्तर भारत अभी भी लगभग 28 छोटे बड़े राज्यों विभाजित था। और इस बार स्थिति का लाभ मेसिडोनिया के शासक सिकन्दर ने उठाया। सिकन्दर के आक्रमण ने भारत के दरवाजे पश्चिम जगत के लिए खोल दिए जिसका परिणाम यह हुआ की आने वाले लगभग दो हजार वर्षों तक भारत को विदेशी आक्रमणों का सामना करना पड़ा। सिकन्दर के बाद क्रमश यूनानी, शक, कुषाण, पह्लव, हूण, अरब, तुर्क, मुग़ल, और अंग्रेजों ने भारत पर आक्रमण किया और राज किया।
शक और कुषाण आक्रमणकारियों ने प्राचीन भारत की राजनीति को सबसे अधिक प्रभावित किया, इन दोनों का साम्राज्य पश्चिमोत्तर भारत से लेकर मथुरा और उज्जैनी तक फैला हुआ था। मौर्योत्तर भारत में सबसे प्रभावशाली साम्राज्य कुषाणों का ही था। उन्होंने उत्तरापथ पर अपना अधिपत्य स्थापित कर पश्चिम जगत से उनके व्यापार को अपने हाथो में ले लिए था। इन सभी आक्रमणों के प्रभाव की छाप प्राचीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक दशा पर स्थाई तौर पर रह गई। हमारे राजनीतिज्ञ, इतिहासकार और समाजशास्त्री झूठे गौरव के महासागर में यही कहकर गोते लगते आ रहे हैं कि भारतीय संस्कृति एक ऐसा महासागर है जिसमे जो आक्रमणकारी के रूप में आया, उसे हमारी मिट्टी और संस्कृति ने अपने आप में आत्मसात कर लिया और वो भारत का ही होकर रह गया। जबकि यह सत्य है कि बहुत से आने वाले आक्रमणकारियों ने बाद में वैष्णव, शैव और बौद्ध धर्म धारण कर लिया, किन्तु हम यह भूल जाते है छोटे से छोटा आक्रमण भी वहां बसी जनजातियों को पूरी तरह तबाह कर देता है वहां की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बुरी तरह से प्रभावित करता है। झूठे गौरव के बजाए हमें इतिहास से यह सबक लेना चाहिए कि भारत पर एक के बाद एक विदेशी आक्रमण कैसे हुए और हम उन्हें रोकने में असमर्थ क्यों रहे? जबकि लगभग उसी समय के आसपास हमरे पडोसी देश चीन में उत्तर से होने वाले आक्रमणों को रोकने के लिए चीन की महान दीवार का निर्माण शुरू हो गया था। जबकि 6ठी सदी ई.पू. से लेकर 12 वी सदी ई. तक उत्तर भारत की लगभग वही स्थति बनी रही जो ईरानियों के आक्रमण के समय थी। प्राचीन काल से ही भारत की जटिल सामाजिक व्यवस्थाओं और धार्मिक विभिन्नता ने भारत को अनेक छोटे छोटे स्थानीय राज्यों में विभाजित कर दिया, जो हर समय उत्तर भारत पर अधिपत्य के लिए आपस में झगड़ते रहे और कई बार तो अपना बदला लेने के लिए विदेशी आक्रमणकारियों को भी आमंत्रित किया।
भारत पर एक के बाद एक होने वाले विदेशी आक्रमणों का सीधा और साफ कारण इतिहास की अहवेलना करना, और इतिहास से कोई भी सबक न सीखना रहा है। पूर्वजों की वीर-गाथा के महाकाव्य लिखने के स्थान पर उनकी पराजय के कारणों पर अधिक ध्यान दिया जाता और उत्तर भारत में राजनीतिक एकता स्थपित की जाती तो इन आक्रमणों को रोका जा सकता था।
तुर्क, मुग़ल और अंग्रेजो के आक्रमण और विजय के कारण भी वही थे जो एक हजार वर्ष पूर्व थे। अंग्रेजो से आजादी प्राप्त करने के बाद भारत का राजनैतिक एकीकरण का सपना तो पूरा हो गया, किन्तु सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समस्या आज भी वैसी ही है, बल्कि उस से भी अधिक जटिल होती जा रही है। धार्मिक स्थलों के अपमान, खानपान और वेशभूषा को लेकर हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाइयों में आजादी के बाद कई बार सांप्रदायिक दंगे भड़क चुके हैं। इतिहास से सिखने के बजाए हम अपनी आने वाली पुश्तों में धर्म और जाति के आधार पर हुए अन्याय का बदला लेने की भावना को भरते जा रहे है । विरासत में मिले इतिहास और पुरातत्विक स्मारकों को केवल उनसे जुडी घटनाओं, उनकी कला शैली और उनके बनाये जाने और तोड़े जाने के कारणों से सबक लेना चाहिए न कि राजनीति और धर्म से प्रेरित होकर हजार साल पहले हुए अन्याय का बदला वर्तमान में लेना। उदाहरण के लिए तुर्कों और मुगलों के शासन काल में बहुत सारे मंदिरो को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया। बहुत आसान है आज उन मस्जिदों को तोड़कर उनके स्थान पर पुनः मंदिर बना देना, किन्तु ऐसा कर के हम इतिहास में की गई गलतियों को दोबारा दोहराने के अलावा कुछ नहीं कर रहे। ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्मारक चाहे वो मंदिर हो, मस्जिद हो अथवा चर्च हो सभी को संरक्षित करके रखना आज हमारा फर्ज है कि अपनी आने वाली पुश्तों को ये बता सकें कि हमारे पूर्वजों कि किन राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों में इनका निर्माण कराया और किन परिस्थितियों में उनको तोड़कर उनके स्थान पर दूसरे स्मारकों का निर्माण कर दिया गया। दिल्ली स्थित अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद और अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद दोनों का निर्माण मंदिरो को गिराकर किया गया। नब्बे के दशक में धार्मिक भीड़ द्वारा बाबरी मस्जिद को गिरा कर अपने पूर्वजों का बदला ले लिया गया। विचारणीय है जब यह मंदिर गिराया गया था तब के भारत में 80 प्रतिशत से अधिक आबादी आधुनिक हिन्दू धर्म (तब के शैव, वैष्णव,और शाक्त सम्प्रदायों) को मानने वाली थी फिर भी हम ना तो देश बचा पाये थे ना अपने मंदिर।
अगर बात सिर्फ पूर्वजों का बदले लेने की है तो, मंदिर और मस्जिद बहुत आसानी से गिराये भी जा सकते हैं; और उनके स्थान पर नए स्मारक बनाये भी जा सकते है, किन्तु इससे कुछ भी नहीं बदलेगा, जैसा कि हम पिछले दो हजार वर्षों से देखते आ रहे हैं कि प्रत्येक दो-तीन सौ वर्षो के अंतराल में कोई नया आक्रमणकारी भारत पर आक्रमण करता आया है, और हम हर बार उनको रोकने में असमर्थ रहे हैं। ऐसा इस लिए हुआ क्योंकि हमने इतिहास को अपने पूर्वजों के उत्थान और विदेशियों द्वारा उन पर किये गए अत्याचारों की कहानी समझा और इतिहास से यह नहीं समझा कि हर बार कुछ हजार की सेना लेके आए विदेशी इतने बड़े भू भाग पर राज करने में सफल कैसे हो गए। सही मायनो में बाबरी मस्जिद हो या अढ़ाई दिन का झोपड़ा हो या ऐसे तमाम स्मारक वो इस बात का प्रमाण है कि प्राचीन काल से ही हम में राजनैतिक और धार्मिक एकता का बहुत अधिक आभाव था यही कारण है कि प्रत्येक विदेशी आक्रमण के सामने हम टिक नहीं पाए। अच्छा यह होगा कि किसी भी विवादित स्मारक को तोड़े बिना, उनके बगल में अपना भव्य स्मारक का निर्माण करें और विवादित स्मारक को पुरातात्विक अवशेष के रूप में संरक्षित कर के रखते ताकि अपनी आने वाली पीढ़ी को बता सके कि, जैसे की हमारे पूर्वजो के साथ हुआ, राजनैतिक एकता के आभाव में कोई भी बहार से आकर हमें अपना गुलाम बना सकता है। आज हम किसी भी धर्म को मानते हों, किसी भी जाति और समुदाय से आते हो विपत्ति के समय हमें एकजुट होना होगा नहीं तो वही होगा जो इतिहास में पहले हो चूका है।
अंत में मै बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि इतिहास को वैसे ही पढ़ें और समझे जैसे दूसरे विषयो को किताबो से पढ़कर समझते है ना कि चाय की टपरी और व्हाट्सप पर ठेले दिए गए आधे अधूरे सच के जरिये। इतिहास की अवहेलना करके न तो कोई वैज्ञानिक अविष्कार हो सकता है और नहीं किसी सभ्य समाज और देश का निर्माण हो सकता है। मानव इतिहास को पढ़ने का सही तरीका यही है कि हम अपने पूर्वजों की वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक उन्नति के साथ साथ उनकी असफलताओं का भी सही ढंग से मूल्यांकन करे और समझने का प्रयास करे कि उनकी सफलता और असफलता के कारण क्या थे, कही हम वहीं गलतियां दोबारा तो नहीं दोहरा रहे जो हमारे पूर्वजों ने की थी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है और उनके विचार व्यक्तिगत है।)